सरसों, नारियल या मूंगफली, कौन से तेल में पकाएं खाना
सुमन कुमार
भारतीय खाने में तेल, घी, मक्खन का इस्तेमाल पूरे देश में जमकर होता है। हालांकि क्षेत्र के अनुसार तेलों का प्रकार बदलता रहता है मगर तेलों के इस्तेमाल को लेकर हाल के दिनों में एक प्रकार के असमंजस का भाव लोगों में आया है। देश के उत्तर और पूर्वी हिस्से में जहां सरसों तेल का प्रयोग बहुतायत से होता है वहीं मध्य भारत में मूंगफली का तेल और दक्षिण भारत में नारियल का तेल भोजन पकाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
इसके बावजूद आए दिन हम और आप विज्ञापनों में देखते हैं कि अलग-अलग तरह के तेलों को हमारे हृदय और स्वास्थ्य के लिए बेहतरीन बताकर प्रचारित किया जाता है। इसके कारण लोगों में कन्फ्यूजन की स्थिति और बढ़ जाती है। दरअसल भारत में खाद्य तेलों को लेकर बहुत ज्यादा अध्ययन कभी नहीं किए गए। परंपरा से जिन इलाकों में जो तेल खाया जाता रहा है उसी का इस्तेमाल आज भी किया जाता है।
इस आलेख में हम आपको बताएंगे कि आखिर डॉक्टर किन मापदंडों के अनुसार लोगों को तेल का इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। देश के जाने-माने डायबेटोलॉजिस्ट और फॉर्टिस सी-डॉक अस्पताल के चेयरमैन डॉक्टर अनूप मिश्रा की टीम ने आईआईटी दिल्ली, डायबिटीज फाउंडेशन और इंडिया और नेशनल डायबिटीज, ओबेसिटी एंड कोलेस्ट्रोल फाउंडेशन के संयुक्त तत्वाधान में कुछ वर्ष पहले एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन के नतीजों के आधार पर हम इस आलेख में आपको विभिन्न तेलों के इस्तेमाल के बारे में जानकारी देंगे।
दरअसल तेलों का इस्तेमाल उसमें पाए जाने वाले फैट के आधार पर किया जाता है। शरीर को सही तरीके से काम करने के लिए कम मात्रा में फैट या वसा (जरूरी फैटी एसिड) की जरूरत होती है। इस फैट (दिखाई देने वाले जैसे कि तेल, घी, मक्खन आदि और न दिखाई देने वाले जैसे कि अनाज और दालें आदि) की मात्रा हमारे रोज के एनर्जी में 30 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। एक ग्राम फैट 9 कैलरी के बराबर होता है। इसलिए डायबिटीज के जिस मरीज को 1200 कैलरी वाला भोजन रोज लेने की सलाह दी गई हो तो उसमें फैट की मात्रा करीब 400 कैलरी यानी 45 ग्राम होनी चाहिए। ये कैलरी शरीर में जमा होते हैं और इनका बाद में संचित एनर्जी के रूप में इस्तेमाल हो सकता है। शरीर में पहुंचे ऐसे कार्बोहाइड्रेट और फैट जो कि शरीर की जरूरत से अधिक हों, उनके द्वारा निर्मित ग्लूकोज शरीर की वसा कोशिकाओं में ट्राइग्लिसराइड्स के रूप में जमा हो जाता है।
सेचुरेटेड फैटी एसिड (एसटीए):
ये फैट का वो प्रकार है जो आमतौर पर जानवरों से प्राप्त होता है। इसे आप खराब फैट कह सकते हैं। सेचुरेटेड फैट शरीर की कोशिकाओं के मेंम्ब्रेंस को कड़ा बना देते हैं, कोलेस्ट्रोल और रक्तचाप का स्तर बढ़ा देते हैं और ये टाइप 2 डायबिटीज और कोरोनरी हार्ट डिजीज विकसित करने में भूमिका निभाते हैं। ज्यादा सेचुरेटेड फैट खाने से मोटापा और कोलस्ट्रोल का स्तर बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए मांस और डेयरी उत्पाद जैसे कि मक्खन सेचुरेटेड फैट के मुख्य स्रोत हैं और इसलिए इनसे परहेज करना चाहिए। दक्षिण भारत में व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाले नारियल तेल में सेचुरेटेड फैट की मात्रा 92 प्रतिशत होती है। यानी ये शरीर के लिए बहुत ही हानिकारक होता है। मक्खन में यही मात्रा 62 फीसदी होती है और वनस्पति घी में 47 फीसदी। वनस्पति घी के बारे में हम आगे ट्रांस फैट की चर्चा के दौरान और जानकारी देंगे।
अनसेचुरेटेड फैट:
अनसेचुरेटेड फैट की श्रेणियां
ट्रांस फैटी एसिड (टीएफए)
सेचुरेटेड फैट के अलावा कुछ फैट शरीर के लिए बहुत ही बुरे होते हैं। ट्रांस फैट्स जो कि वनस्पति जैसे तेल में तले हुए भोजन (फ्रेंच फ्राइज आदि) और व्यावसायिक रूप से बेक किए हुए भोजनों से प्राप्त होते हैं अपनी प्रकृति में सेचुरेटेड फैट के ही समान होते हैं और इनके सेवन से कोलेस्ट्रोल, उच्च रक्तचाप और ब्लड ग्लूकोज के नियंत्रण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। एक ही तेल को बार-बार गर्म करने से उसमें ट्रांस फैटी एसिड पैदा होता है। इसलिए एक ही तेल को दोबारा इस्तेमाल करने से परहेज करना चाहिए।
ट्रांस फैट के बारे में और जानें
बिना गर्म किए भी प्रति 100 ग्राम सफेद मक्खन में ट्रांस फैट की मात्रा 1.4 ग्राम, घी में 3.3 ग्राम और पीले मक्खन में 1.5 ग्राम होती है। दूसरी ओर तिलहन से प्राप्त तेलों की बात करें तो प्रति 100 ग्राम सरसों तेल में ये 2.8 ग्राम, मूंगफली के तेल में 0.3 ग्राम, नारियल तेल में 0 ग्राम, वनस्पति या रिफाइंड तेलों में 13.7 ग्राम और सैंडविच स्प्रेडों में 4.4 ग्राम तक होता है। हालांकि जब इन तेलों को बार-बार गर्म किया जाता है और इनमें कुछ तला जाता है तब ट्रांस फैट की मात्रा तेजी से बढ़ती है। ये बढ़ोतरी हर तेल में होती है मगर सबसे खराब हालत वनस्पति तेलों की है। इसलिए डॉक्टर यह सलाह देते हैं कि किसी भी हालत में तेलों को दोबारा इस्तेमाल न करें। एक बार गर्म करके खाना बनाने के बाद बचा हुआ तेल फेंक दें।
अलग अलग तेलों में विभिन्न प्रकार के फैट की मात्रा। इसके आधार पर ही तेल के इस्तेमाल का चयन करें।
मोनोअनसेचुरेटेड फैट (मूफा)
मोनोअनसेचुरेटेड फैटी एसिड यानी मूफा के बारे में आजकल खूब चर्चा हो रही है। विज्ञापन कंपनियां भी दावा कर रही हैं कि उनके तेल में मूफा और पूफा पर्याप्त मात्रा में है। दरअसल ये फैट सभी फैट में सबसे अच्छे होते हैं। जैतून यानी ओलिव, राई यानी कैनोला और सरसों के तेल इनका सबसे अच्छा स्रोत होते हैं। सरसों के तेल में ट्रांस फैट की कुछ मात्रा होती है मगर मूफा की मात्रा भारत में खाए जाने वाले तेलों में सबसे अधिक इसी तेल में होती है इसलिए ट्रांस फैट की उस मात्रा को नजरंदाज किया जा सकता है। इसके अलावा बादाम, पिश्ता, जैतून और मूंगफली आदि में सबसे अधिक मोनोअनसेचुरेटेड फैट मिलते हैं।
पॉलीअनसेचुरेटेड फैट
पॉलीअनसेचुरेटेड फैट में ओमेगा 3 (एन-3 फैटी एसिड) और ओमेगा-6 फैट्स (एन-6 फैटी एसिड) शामिल हैं जो कि कोशिकाओं के मेंम्ब्रेंस को ज्यादा लचीला बनाते हैं, रक्तचाप को कम करते हैं, ट्राइग्लिसराइड्स को कम करते हैं और हृदय रोग से जुड़े खतरों को कम करते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये फैटी एसिड मानव शरीर के अंदर नहीं बनते। ठंडे पानी में मिलने वाली सैमेन मछली ओमेगा-3 फैटी एसिड का एक समृद्ध स्रोत है। इसके अलावा ये फैटी एसिड बादाम, अलसी का बीज, चिया (तुलसी की एक प्रजाति) का बीज, मछली के तेल में भी पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। इसी प्रकार मकई और सूरजमुखी के तेल में ओमेगा-6 फैटी एसिड मिलता है। साथ ही अनाज खाकर मोटे हुए जानवरों के मांस में भी ये फैटी एसिड मिलता है।
निष्कर्ष
अलग अलग तरह के फैट को ध्यान में रखते हुए आहार विशेषज्ञ लोगों को सरसों, ऑलिव, कैनोला के तेल का ज्यादा इस्तेमाल करने, मूंगफली के तेल का सीमित इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं। वनस्पति तेल का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं करना चाहिए।
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